Tuesday, June 30, 2020

Rasbhari: क्लाईमेक्स तक आपको हँसाती और मकसद खोती रसभरी

Rasbhari filmistan
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Rasbhari: जब भी कोई खूबसूरती की मलिका पुरुष को दिखती है, वह उसे लेकर हमबिस्तरी तक के सपने देखने लग जाता है। पुरुषों की चिटचैट में कितनी औरतों से संबंध बनाएं, इन सब की चर्चा होती है। जैसे महिलाएं इधर-उधर महिलाओं की बुराई करके, खुद की तारीफ करके और गपशप करके खुशी महसूस करती हैं, उसी तरह पुरुष महिलाओं से उनके अफेयर को लेकर चर्चा करने में गर्व महसूस करते हैं। दोनों ही मामलों में औरतें ही पिसती हैं। स्वरा भास्कर अभिनीत रसभरी वेब सीरीज पुरुषों की इसी कल्पना और महिलाओं की कुंठा को दिखाती है।
शानू (स्वरा भास्कर) स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाती है, और अभी-अभी ही मेरठ शहर आई है। शानू का रहन-सहन स्टाइलिश होने की वजह से शहर के पुरुष उसके सपने देखने लग जाते हैं। यहां तक कि स्कूल में पढ़ने वाला नंद अपनी ही कक्षा की प्रियंका को पसंद करता रहता है, लेकिन शानू टीचर को देख कर उसपे लट्टू हो जाता है। सेक्स के मामले में खाता खोलने को वह और उसके दोस्त आतुर हैं। दूसरी ओर शानू के पति नौकरी की वजह से कई दिनों तक घर नहीं रहते हैं। इधर पुरे शहर में शानू टीचर के अनैतिक संबंधों को लेकर चर्चे होना शुरू हो जाते हैं। इन्हीं पुरुषों की पत्नियों की हर रोज बैठक होती है, यह महिला मंडली शानू को रंगे हाथ पकड़ना चाहती है। वे शानू के घर के पास जासूस भी रखती हैं, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकलता। इधर नंद शानू टीचर के यहां ट्यूशन जाना शुरू कर देता हैं, जहां वह मौका देख कर शानू टीचर के साथ शारीरिक संबंध बनाना चाहता है। उसे मौका भी मिलता है, लेकिन शानू टीचर उसकी इसी हरकत के कारण उसे थप्पड़ मार कर ट्यूशन आने से मना कर देती है। वह शानू टीचर से माफी मांगता है लेकिन शानू टीचर से बदला लेने के लिए उसके पति को शानू के नाजायज संबंधों के बारे में बता देता है। तब उसका पति परेशान हो जाता है और कहता है कि ये शानू नहीं रसभरी है। तब नंद के मन में मौजूद शानू को लेकर गलतफहमी दूर हो जाती है। अब शानू को मल्टीपल पर्सनालिटी डिसऑर्डर है या कोई भूत का साया, ये तो सीरीज पूरी देख कर ही पता चला पायेगा।  इधर महिला मंडल शानू को उसकी करतूतों के लिए सबक सिखाने के लिए योजना को अंजाम देने वाली होती है।

Kaagaz Ke Phool: वक़्त ने किया क्या हंसीं सितम


रसभरी वेब सीरीज की कहानी ठीक है, ऐसा हकीकत में भी होता है, बच्चे अपने टीचर्स को पसंद करने लगजाते हैं। फिल्म की अच्छी बात ये है कि भटकते किशोर को टीचर सही रास्ता भी दिखाती है, ऐसे समय में जब नई जनरेशन को बिलकुल नापसंद किया जाने लगा है, उस वक्त में एक टीचर को उसके स्टूडेंट के साथ उसकी बात को सुनने और उसे सही राह दिखाने जैसा सीन तारीफे काबिल है। कई बच्चे हैं, जो जनरेशन गेप के कारण अपने माता-पिता या टीचर से अपनी समस्या नहीं बता पाते और गलत कदम पर चले जाते हैं। ऐसे में यह सीन ठंडक देता हैं।
 स्क्रीनप्ले अच्छा लिखा गया है लेकिन रसभरी के नंद को किस करने वाला सीन बेवजह था। शुरू-शुरू में लगता हैं कि ये सब अनैतिक संबंधों की अफवाहे हैं, लेखक-निर्देशक भनक भी नहीं पड़ने देते और चौथे-पांचवे एपिसोड में पता चलता है कि ये तो कुछ और ही मामला है। रसभरी की कहानी ने जो मकसद शुरू में दिखाया, अंत तक उसे दिखाने में नाकामयाब हो गई। इन बातों को हटा दें तो कहानी को स्क्रीनप्ले बखूबी दिखाता है।
निर्देशन गजब का हैं, शानू से लेकर रसभरी तक बदलने में स्वरा के साथ-साथ निर्देशक की भी कड़ी मेहनत हैं। रसभरी के डायलॉग भी मजेदार हैं। स्वरा में खासियत हैं कि उनका उर्दू उच्चारण अच्छा है। यह सीरीज पूरी तरह से स्वरा के नाम है। आयुष्मान का अभिनय पहले-दूसरे एपिसोड में गड़बड़ था, लेकिन आगे उन्होंने रफ्तार थाम ली। रसभरी वेब सीरीज की सिनेमाटोग्राफी कमाल की है और थीम सांग तो बहुत क्रिऐटव बनाया गया है, जिसे आप बार-बार सुनना भी चाहेंगे और देखना भी।
रसभरी आपको अंत तक हंसाएगी। अंत में सिर्फ इतना कि रसभरी वेब सीरीज देखने लायक है, हालाँकि थोड़ा सा कंटेंट एडल्ट है, लेकिन इसे 16+ बच्चे भी देख सकते हैं।   

गुलाबो-सिताबो की लड़ाई में तीसरे ने जीती बाज़ी

Wednesday, June 24, 2020

Finding fanny: live in reality, not in imagination

finding fanny filmistan
Finding Fanny is a film of nuts but not like houseful series. Finding Fanny does not only show comedy but also sorrow. The film is about a story of Goa-based village. Finding Fanny demonstrates a different India which gives you peace.
Ferdie (Naseeruddin Shah) is a 75-year-old postmaster. Angie (Deepika Padukone) is a friend of him. She is a widow and her mother in law, Mrs Rosalina 'Rosie Eucharistica (Dimple Kapadia) is also a widow. Savio (Arjun Kapoor) and Gabo (Ranvir Singh) both want to marry Angie, but Gabo proposed her before Savio, so she marries to Gabo. Gabo died on the day of the wedding. Savio went to Mumbai for work. Life is not going lightly. 

One day Ferdie Received his 46 years old letter which he sent to his lover Fanny. He proposed Fanny for marriage through the letter. He didn't receive any answer to the letter, so he thought that Fanny rejected him. After 46 years, he came to know the message did not reach to Fanny. He started to regret. He starts to think that he should have talked to Fanny about his feeling. Angie finds the truth behind Ferdie's sorrow. She talks to Savio for taking them to Fanny's village. They arranged a car which belongs to a Painter Don Pedro (Pankaj Kapur). They all go to find Fanny where they all find the truth about each other's life. Now what? Will they find Fanny? Will Ferdie's true that Fanny has been waiting for him?
The film is not as bad as the trailer said. The story is good, but the film looks slightly weird. 
Homi Adajania did direction well. The film is looking very different therefore the credit goes to Homi Adajania. 

As well as Cinematography is good as we can see the different-different location with different angles. 
If we come to the acting point, Naseeruddin Shah's acting makes this film worth to watch. His performance is outstanding. Pankaj Kapur and Dimple Kapadia performance are excellent. Deepika, Arjun Kapoor performed well. Ranvir Singh makes you laugh by his cameo performance. 
In the end, The film is worth to watch. But you have to keep patient to watch the film as the film is slightly slow. The film teaches us to live in reality, not in imagination. Truth is bitter but gives happiness.

Friday, June 19, 2020

कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र

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Aar Paar
गुरु दत्त ने अपनी फिल्मों की कहानी, निर्देशन और चरित्र चित्रण इस तरह दिखाएं, जो आज के समय में भी फिट होते हैं। गुरु दत्त की फिल्मों को देख कर कही से कही तक नहीं लगेगा कि यह पुराने समय में बनाई गई फिल्में हैं। उनकी शैली आधुनिक जमाने के युवाओं का प्रतिनिधित्व करती है। गुरु दत्त अभिनीत और निर्देशित आर पार 1954 में रिलीज हुई।

कालू (गुरु दत्त) अपने मालिक की टैक्सी चलाता है। एक दिन उससे अनजाने में एक्सीडेंट हो जाता है। टैक्सी मालिक की मदद न मिलने पर उसे छह महीने की सजा काटने जेल जाना पड़ता है। अच्छे बर्ताव के कारण उसकी दो महीने की सज़ा माफ़ कर दी जाती है। जेल से छूटने के बाद वह अपने साथ रह रहे कैदी का संदेश एक होटल मालिक को पहुँचाने जाता है। दूसरी और पुराना मालिक उसे काम पर नहीं रखता। वह गैरेज में मैकेनिक का काम करने लगता है, वहीं मालिक की बेटी निक्की (श्यामा) से प्यार करने लगता है। अपनी बेटी के साथ रोमेंस करते हुए निक्की के पिता लालाजी (जगदीप सेठी) उसे काम से निकाल देते हैं। उन्हें पता चलता है कि कालू सजायाफ्ता है तब उन्हें ये शक होता है कि वह चोर और कातिल है। इसलिए वह निक्की को कालू से दूर रहने को कह देते हैं। कालू उस होटल मालिक को संदेशा देता है। वह होटल मालिक उसे टैक्सी खरीद कर दे देता है और उसके सामने शर्त रखता है कि हमें पैसे नहीं चाहिए, लेकिन हम जब बोलेगे तुम्हें तब हमें गाड़ी से लेकर चलना होगा। सब बातों से अनजान कालू उसे हाँ कर देता है। इधर लालाजी और कालू की लड़ाई में निक्की बीच में फंसी होती है। कालू निक्की को कह देता है कि आज आर या पार हो जाए, वह उसका रात 11 बजे इंतजार करेगा। अगर वह आई तो ठीक है, अगर वह नहीं आई तो वे दोनों कभी नहीं मिलेंगे। 
इधर कालू को होटल मालिक और उसके लोगों को लेकर जानकारी मिलती है कि वे बैंक लूटने वाले हैं। इसलिए वह उनका साथ छोड़ देता है। होटल मालिक निक्की को किडनेप कर लेता है ताकि वह कालू से अपना काम निकलवा सकें। अब आगे क्या होगा, ये तो आपको ही देखना पड़ेगा।

Kaagaz Ke Phool: वक़्त ने किया क्या हंसीं सितम


बहरहाल फिल्म कोई कॉमेडी शैली की नहीं है, फिर भी कई सीन में आपको हंसी आएगी। कहानी अबरार अल्वी ने लिखी है, जो कि बिलकुल बेसिक है। बहुत ज्यादा खास तो नहीं लेकिन निर्देशन और स्क्रीनप्ले इसे देखने लायक बनाते हैं।
सिनेमाटोग्राफी अच्छी है, हालाँकि कहानी में और ज्यादा बेहतर सिनेमाटोग्राफी का कोई स्कोप नहीं था।
संगीत ओ पी नय्यर का है। इस फिल्म के दो गाने तो आज भी लोगों को याद है, कभी आर कभी पार लगा तीरे नजर, बाबूजी धीरे चलना जैसे गानों ने फिल्म को और मनोजरंक बनाया है।
गुरु दत्त ने फिल्म का निर्देशन बहुत अच्छा किया है, उनके निर्देशन ने फिल्म को देखने लायक ही नहीं तारीफें काबिल भी बनाया है।
अगर अभिनय की बात करें तो जगदीप सेठी ने कम सीन में अच्छा असर छोड़ा है। श्यामा, गुरु दत्त, जॉनी वॉकर, शकीला ने अच्छा अभिनय किया है। जगदीप ने इलायची के रोल में हंसाया है।
फिल्म देखने और दिखाने लायक है। कुल मिलाकर फिल्म मनोरंजक है।

गुलाबो-सिताबो की लड़ाई में तीसरे ने जीती बाज़ी

Sunday, June 14, 2020

गुलाबो-सिताबो की लड़ाई में तीसरे ने जीती बाज़ी

Gulabo Sitabo film review
Gulabo Sitabo
गुलाबो सिताबो दो कठपुतली हैं जिनका खेल उत्तरपदेश के गांवों में बहुत मशहूर हैं। कलाकार गुलाबो-सिताबो का नाच दिखा कर सास-बहु और भाभी-ननंद के झगड़ो के किस्से सुनाते और अपना गुजारा करते। जूही चतुर्वेदी की लिखी कहानी गुलाबो-सिताबो प्रॉपर्टी एक्ट के केस को रचनात्मक तरीके से बयां करती है। गुलाबो सिताबो फिल्म में एक गुलाबो है और एक सिताबो यानी कि मिर्जा (अमिताभ बच्चन)और बांके (आयुष्मान खुराना। दोनों ही लड़ते रहते हैं। मामला 100-200 साल पुरानी शाही फातिमा महल से जुड़ा बताया हैं। मिर्जा अपनी बेगम के साथ उसके फातिमा महल में रहता है। वह 78 साल का है, जबकि बेगम 94 की है। मिर्जा की नजर शुरू से ही बेगम के फातिमा महल पर है। दूसरी तरफ उनके महल में 70 सालों से रहने वाले किरायेदार भी महल हड़पने की फ़िराक में हैं। महल टूट-फुट रहा है लेकिन कोई मरम्मत नहीं करवाता। दूसरी तरफ किरायेदार 30 रुपए किराया तक समय पर नहीं देते। मिर्जा और बांके दोनों जब देखो तब लड़ते रहते। वह दोनों महल हड़पना चाहते हैं, जबकि महल बेगम के नाम पर है। बांके आटा-चक्की चलाता है, लेकिन समय पर किराया नहीं देता।


बदला लेना तो बनता है बॉस: ब्लैकमेल


मिर्जा का दोस्त उसे वकील के पास जाने को कहता है। वहाँ वकील उसे कहता है कि ऑनरशिप अपने नाम करवाएं, बचे हुए रिश्तेदारों से NOC लें ताकि बेगम के जाने के महल को लेके कोई दावे नहीं करें। इधर बांके पुरातत्व विभाग कर्मचारी ज्ञानेश को महल से जुड़ी जानकारी देता है ताकि उस महल को खाली करवा लिया जाए और मुआवजे के तौर पर उन्हें रहने के लिए जगह मिल जाएं। इधर मिर्जा का वकील उसे समझाता है कि तुम नहीं निपट सकोगे पुरातत्व विभाग से, इसलिए उसे एक बिल्डर को बेच दें। मिर्जा पैसे के लालच में हाँ कर देता है। अब देखना ये है कि गुलाबो और सिताबो की लड़ाई में जीत किसकी होगी ?

फिल्म की कहानी ठीक है। शूजित सिरकार की कामयाबी है कि वह बूढ़े इंसान के किरदार को बेहतर तरीके से दिखाते हैं। उनका निर्देशन भी कामयाब रहा है, लेकिन बांके के किरदार में आयुष्मान खुराना कुछ जमे नहीं। हालाँकि आयुष्मान अच्छे एक्टर हैं लेकिन ये किरदार उन पर कुछ जमा नहीं। ऐसा लगता है जैसे ये किरदार स्वर्गीय इरफ़ान खान के लिए था, वो ही इस किरदार के साथ न्याय कर पाते, जिससे दर्शकों का मनोरंजन भी हो पाता। इस बारे में शूजित भी कहते हैं कि वो इरफ़ान को इस किरदार के लिए लेना चाहते थे। कहानी से और मनोरंजन की उम्मीद थी, जो मिली नहीं। निर्देशन अच्छा है।
कहानी के लिहाज से संगीत और गाने अच्छे हैं। सेट और लोकेशन कहानी पर खूब जँचे हैं।
अमिताभ बच्चन में गजब की एक्टिंग है, इसका श्रेय शुजीत के निर्देशन को भी जाता है। फर्रुख जफ़र ने फातिमा बेगम के किरदार में अपनी आवाज का असर छोड़ा है। विजय राज और सृष्टि श्रीवास्तव ने भी बेहतर अभिनय किया हैं। अंत में सिर्फ इतना ही कि फिल्म देखी जा सकती है, लेकिन फिल्म देख कर आप सिर्फ इरफ़ान खान को मिस करेंगे।

Kaagaz Ke Phool: वक़्त ने किया क्या हंसीं सितम

Tuesday, June 9, 2020

Kaagaz Ke Phool: वक़्त ने किया क्या हंसीं सितम

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Kaagaz Ke Phool 
शौहरत, दुनिया का आपका दीवाना होना कागज के फूल की तरह है, जो लगता तो खूबसूरत है, लेकिन असल फूल की तरह खुशबु नहीं देता, जिसके लिए वह पहचाना जाता है। कागज का फूल सिर्फ दिखने के लिए फूल होता है, असल में वह सिर्फ दिल बहलाने के लिए एक ख्याल होता है। कागज का फूल फिल्म भी कुछ ऐसी ही है। फिल्म शुरू होती है, जहाँ बूढ़े सुरेश सिन्हा (गुरु दत्त) अपनी फिल्म के सेट पर पहुँचते हैं, उसे बहुत ध्यान से देखते हैं कि कभी वो भी फिल्मों का डायरेक्शन किया करते थे। फैन्स उनके आगे पीछे घूमते थे, लेकिन जिंदगी इस मोड़ पर ले आई कि वो खाने-खाने को मोहताज हो गए। सुरेश एक कामयाब डायरेक्टर हैं, उनकी पत्नी उनसे अलग रह रही हैं क्योंकि वो फिल्मों में काम करने लग गए हैं। उनकी पत्नी वीना के नजरिये से फिल्मो का माहौल बहुत गंदा है। वीना अमीर घराने से हैं, उसने पिता से दूर रखने के लिए अपनी बच्ची पम्मी को दूर एक बोर्डिंग स्कूल में रखा है। इधर कभी-कभी छुप-छुप के सुरेश अपनी बेटी से मिल लेते हैं। बॉम्बे में वे अकेले रहते हैं। एक दिन वह देवदास की कहानी पर काम कर रहे होते हैं। अपनी फिल्म देवदास के लिए ऐसी हीरोइन चाहिए, जिसमें सादगी हो, जो बिना मेकअप के भी खूबसूरत लगती हो।

ऐसे कैसे जाने भी दो यारो!


सुरेश की मुलाकात शांति (वहीदा रहमान) से होती है। वह अपनी फिल्म में उसे कास्ट कर देते हैं। शांति सुरेश को चाहने लगती है। शांति और सुरेश एक दूसरे को समझने लग जाते हैं। जब अख़बारों में ये चर्चा होती हैं तो सुरेश की बेटी पम्मी शांति को मजबूर करती है कि वह उसके मां-बाप के बीच में से हट जाए। शांति उसे समझाती हैं कि उसके आने से पहले ही उसके मां-बाप अलग रह रहे है। पम्मी उसकी एक नहीं सुनती और उसे जाने के लिए कहती है। प्रोड्यूसर के साथ शांति का सात साल का कॉन्ट्रेक्ट रहता है। शांति सब छोड़ कर एक गांव में चली जाती है। इधर पम्मी के नाना उसे लेने आते हैं, लेकिन वह जाने को तैयार नहीं होती और न ही सुरेश उन्हें ऐसा करने देता है। नतीजन पम्मी के नाना कस्टडी के लिए केस लगा देते हैं, जिसमें सुरेश हार जाता है।
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वह अकेला रह रहा होता है लेकिन केस हार जाने के बाद उसे असल में अकेलापन तब महसूस होता है। इस अकेलेपन में वह टूट जाता है और शराब पीने लगता है। इस तरह उसका बना बनाया करियर खराब हो जाता है। इधर शांति प्रोड्यूसर के लगाए गए केस हारने के बाद दोबारा काम पर आने के लिए सुरेश को डायरेक्शन देने की बात कहती है। सुरेश शराब में इतना डूब जाता है कि शांति से कहता है कि उसने सब कुछ खो दिया अब खुद्दारी नहीं खोना है। वह काम नहीं करता और आखिरी पल में डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठता है, और वहीं दम तोड़ देता है।
फिल्म की कहानी ठीक थी। गुरु दत्त की फिल्म शैली ऐसी रही है कि उनकी फिल्मों का विषय आज भी प्रासंगिक रहा हैं, साथ ही फिल्माने का अंदाज भी आधुनिक ही रहा है। फिल्म का स्क्रीनप्ले भी अच्छा है लेकिन फिल्म को थोड़ा ज्यादा खिंच दी। इसे दो घंटे का भी बनाया जा सकता था। कही पर भी किसी भी लिहाज से डायरेक्शन में कमी नहीं बाकी जॉनी वॉकर हंसाने के लिए हैं ही। 
कैमरा संभाला है वीके मूर्ति ने, उन्होंने हर सीन के मूड़ के साथ शूट परफेक्शन के साथ किया है। सेट और लोकेशन भी अच्छे है। संगीत ठीक है, सन सन वो चली हवा गाना फिल्म में सबसे अच्छा है। 
अभिनय की बात करें तो गुरु दत्त, वहीदा रहमान, जॉनी वॉकर, वीना सप्रू ने अच्छा अभिनय किया है। कुल मिलाकर फिल्म अच्छी है, थोड़ी सी ठंडी है और कुछ-कुछ जगह मकसद खोती है। फ्री है तो ये फिल्म देख सकते हैं लेकिन अलग से समय न निकालें। 

Sunday, June 7, 2020

मैं अकेला ही चला था, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया

karwaan filmistan
Karwaan 
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया। कारवाँ फिल्म अविनाश (दुलकर सलमान) और शौकत (इरफान खान) नाम के दो दोस्तों के सफर की कहानी है। अविनाश फोटोग्राफर बनना चाहता था लेकिन उसके पिताजी नहीं चाहते थे कि वह ज्यादा संघर्ष वाला प्रोफेशन चुनें जिसमें कोई सिक्युरिटी न हो। इस वजह से अविनाश और उसके पिता के सम्बन्ध खराब रहते हैं। एक दिन अविनाश को उसके पिता की मौत की खबर मिलती है। जब वह उनकी बॉडी लेने जाता है तो उसे किसी और की बॉडी दे दी जाती है। उसे पता चलता है कि उसके पिता की बॉडी ताहिरा नाम की महिला के पास चली गई है और ताहिरा की मां की बॉडी अविनाश के पास आ जाती है।


बदला लेना तो बनता है बॉस: ब्लैकमेल


बॉडी एक्सचेंज करने के लिए अविनाश और शौकत सफर पर निकल जाते हैं। इसी बीच ताहिरा अविनाश को फोन करती है कि उसकी बेटी तान्या तब से फोन नहीं उठा रही है, जबसे उसे नानी की मौत का पता चला है। अविनाश और शौकत तान्या को लेने ऊटी के लिए निकल जाते है। इस तरह से उनका सफर लंबा हो चला जाता है। आखिर में अविनाश को अपने पिता की बॉडी के साथ मिले सामान में खत मिलता है, जिससे उसे पता चलता है कि उसके पिता उसे क्यों फोटोग्राफी नहीं करने देते। वह खत अविनाश के पिता अपने दोस्त के लिए लिखते हैं, जिसमें वह कहते हैं कि अविनाश और मेरी बातचीत नहीं है क्योंकि मैंने उसे फोटोग्राफी नहीं करने दी। जब मैं यंग था तब मेरा भी मन था कि पियानो सीखूं और संगीत में अपना करियर बनाऊं लेकिन जिंदगी में इतनी गरीबी देखी कि हिम्मत नहीं हो पाई। सोच रहा हूँ कि अविनाश को कह दूँ कि कुछ दिन काम कर लें और जल्दी रिटायरमेंट लेकर फोटोग्राफी शुरू कर दें। यह सब पढ़ कर अविनाश के मन में पिता के लिए नाराजगी दूर हो जाती है।
कुल मिलाकर कहानी अच्छी है। कहानी किसी तरह की आत्म-खोज तो नहीं, लेकिन हाँ सच्चाई के बिलकुल करीब है। फिल्म का निर्देशन भी अच्छा किया गया है। डायलॉग्स भी बेहतर लिखे गए हैं। शुरू-शुरू में 5 से 10 मिनट तक फिल्म बोरिंग लगती है, लेकिन जैसे ही मौत की खबर आती है फिल्म दिलचस्प लगने लगती है, और तो और इरफ़ान खान सोने पे सुहागा। 
सिनेमाटोग्राफी ठीक थी लेकिन और बेहतर होने की फिल्म में गुंजाइश थी।
एक्टिंग की बात करें तो इरफान ने इस फिल्म को देखने के लायक बनाया है और कोई शक नहीं उनका किरदार लिखने वाले राइटर (आकर्ष खुराना) ने काफी मेहनत की है। दुलकर सलमान, आकाश खुराना, अमाला अक्किनेनी, मिथिला पलकर ने अच्छा अभिनय किया है।
कुल-मिलाकर ये कि फिल्म देखी जा सकती है। 

ऐसे कैसे जाने भी दो यारो!

Thursday, June 4, 2020

बदला लेना तो बनता है बॉस: ब्लैकमेल

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Blackmail Filmistan
जरा सोचिए गहरी नदी है और आपको इस नदी में किसी ने डूबा दिया है। नदी में गिराने वाले पर तो बहुत गुस्सा आना लाजमी है लेकिन क्या हो जब कोई नदी में गिरने के बाद ये सोचे कि रुक! पहले मैं नदी में तैरने का मजा ले लूँ फिर तुझे देखता हूँ। ऐसा देख कर आपको एक अलग तरह से हँसी आएगी ही। ऐसा ही कुछ देव कौशल (इरफ़ान खान) ब्लैकमेल में करते हैं। देव को पता चलता है कि उसकी पत्नी रीना (कीर्ति कुल्हरी) का अफेयर उसके पूर्व प्रेमी रणजीत (अरुणोदय सिंह) से चल रहा है तो वह बहुत दुखी होता है। अपनी पत्नी को अच्छी जिंदगी देने के लिए उसके ऊपर घर से लेकर टीवी तक का लोन रहता है। उसके मन में खुराफाती योजना बनती है। वह रीना के बॉयफ्रेंड रणजीत को ब्लैकमेल करता है और चुप रहने के बदले में एक लाख रुपए मांगता है।

रणजीत अपनी पत्नी डॉली के पिता के घर-जमाई बनकर रहता है। वह अपनी बीवी से बिजनेस शुरू करने की बात कह कर रुपए ले लेता है लेकिन डॉली के पिता उन्हें पैसे वापिस देने को कहते हैं। वह परेशान हो कर रीना को ब्लैकमेल करता है और उससे पैसे मांगता है। इस तरह ब्लैकमेलिंग का दौर चलता है और ब्लैकमेलिंग करने वाले 4-5 लोगों का चक्र चलता रहता हैं। इसी दौरान ब्लैकमेलर नंबर 3 मर जाती है और उसकी हत्या का इल्जाम देव पर आता है। अब देव आगे क्या करेगा, दूसरी तरफ उसे ब्लैकमेल करने वाले भी परेशान कर रहे हैं।

ऐसे कैसे जाने भी दो यारो!


फिल्म की कहानी अच्छी है। देव को टॉयलेट पेपर कंपनी में वर्किंग बताया है। जिंदगी और कहानी को पानी और टॉयलेट पेपर से अच्छी तरह जोड़ कर दिखाया हैं। स्क्रीनप्ले राइटर (परवेज शेख) ने अपनी सारी क्रिएटिविटी फिल्म में डाल दी। फिल्म में दिखाया गया देव का घर भी बिलकुल नेचुरल लगता है। अभिनय देव ने ब्लैकमेल का निर्देशन किया हैं और फिल्म में मजा ला दिया। सिर्फ फिल्म के डायलॉग्स और सीन ही नहीं बोलते बल्कि बैकग्राउंड में दिखने वाली चीजें भी बहुत कुछ बोलती हैं।
फिल्म की सिनेमाटोग्राफी भी तारीफें काबिल है। कैमरा का कैसे इस्तेमाल करना है? ये इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है।
संगीत फिल्म के अनुसार है। दिल का खिलौना गाना पत्नी से की गई खामोश मोहब्बत का यकीं दिलाने में मदद करता है। बदला गाना तो पूरी फिल्म में हंसाता है।
फिल्म की एडिटिंग भी ठीक है। बेवजह के सीन फिल्म में नहीं है। अगर अभिनय की बात करें तो इरफ़ान खान ने अच्छी एक्टिंग की हैं। कोई शक नहीं, किरदार में जाने के बाद उनकी आँखें डायलॉग्स बोलती हैं। कीर्ति और दिव्या दत्ता ने भी अच्छा अभिनय किया हैं। गजराज राव ने कम सीन में अच्छा असर दिखाया है। अरुणोदय सिंह यंग एक्टर है, उनमें बहुत संभावनाएं हैं। अनुजा साठे ने प्रभा के किरदार में अच्छा अभिनय किया है।

 कुल मिलाकर ये कि फिल्म देखने लायक है लेकिन गलत काम करने को बढ़ावा देती है। हालाँकि ज्यादा सीरियस हो कर न देखी जाए तो फिल्म में कोई कमी नहीं।

प्यासा: ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?